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चिट्ठी न कोई संदेश.. कहां तुम चले गए

  • संचार क्रांति आने के बाद कहीं खो सी गई खत की खुशबू
  • चिट्ठीयों की प्रतीक्षा में आज भी डाकखानों के बाहर लटक रहे लेटर बॉक्स
  • बिल, बिमा व बैकों के दस्तावेज व दवाईयों से भरा रहता है डाकियों झोला

जौनपुर धारा, जौनपुर। चिट्ठी द्वारा संदेश के उस दौर की बात ही अलग थी। जब तरह-तरह के गीतों के माध्यम से खत को बड़ा महत्व दिया जाता था। नगर में पोस्ट ऑफिसों के बाहर व कुछ-कुछ दूरी पर पत्र पेटिका रखी जाती थी। घर-घर से चिट्ठियां लिखी जाती थीं और हर घर में डाक टिकट भी मौजूद हुआ करता था। हर कोई चिट्ठीयों को बाक्स में डालकर पहुँचने से जवाब आने तक का बहुत ही बेसबरी से इंतेजार करते थे। संचार क्रांति के आने के बाद उसकी खुशबू कही खो सी गई है। इस दौर में मोबाइल, इंटरनेट के प्रयोग से लोगों में पत्र-लेखन की परम्परा लगभग खत्म होती जा रही है आज पत्रों की लेखनी केवल विभागों तक ही सहमट कर रह गई है। एक समय था जब चिट्ठियों में भाव और भाषा का संगम हुआ करता था। पत्र लिखते समय हम संवेदनाओं की गहराई में उतरते थे। भाषा की सौंदर्यता से भेंट होती थी। चिट्ठियों के इंतजार ने हमें संयम सीखाया लेकिन चिट्ठियों के जाने से जीवन से संयम व धैर्य खत्म हो गया है। डाक विभाग की अहमियत आज की पीढ़ी शायद ही समझ पायेगी क्योकिं आज के आधुनिक युग में चिदेश का दौर महज काल्पनीक ही लगता है। पहले दूर दराज रहने वालों को देखने के लिये आंखे तरस जाती थी। फोन और इंटरनेट ने संदेशों का आदान-प्रदान तो आसान कर दिया मगर इंतजार और रोमांच का वो लम्हा छीन लिया।

शहर व गांवों के मुख्य चौक-चौराहों पर लगे पत्र पेटिकाएं अब अधिकांश स्थानों से हटा दिए गए हैं। ‘चिट्ठी न कोई संदेश.. कहां तुम चले गए’ की तर्ज पर आज आज लेटर बॉक्स डाकघरों के गेट की शोभा बढ़ा रहें हैं।  चिट्ठी आई है…डाकिया डाक लाया… जैसे गीतों में जिस खत को बहुत महत्व दिया जाता था, आज वह लेटर बाक्स महज डाकघरों के सामने चिट्ठीयों की प्रतिक्षा करते पाया जा रहा है या फिर यह भी कहा जा सकता है कि उसकी आवश्यकता ही खत्म हो गई है। पहले काउंटर से चिट्ठी भेजने का कोई साधन नहीं था और ना ही कोई रीसिविंग ही मिला करता था और लोगों को यह भी नही पता चल पाता था कि चिट्ठी पहुँच गई कि नहीं। जहां पहले दस से पंद्रह हजार चिट्ठीयां रोजाना जाया करतीं थीं अब इनकी गिनती ना के बराबर रह गई है। आज डाकियों के पास खत नहीं बल्कि विभागीय नोटिस, बिल मेल, बुकपोस्ट, दवाई कंपनियों के प्रचार पत्र, बीमा कंपनियों के पत्र आदि होते हैं। एक दौर था जब डाकिए थैला भर कर खत लाता था। पूर्व मे हर कोई अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड पर पत्र लिखता था, लेकिन आज के बच्चों को पत्र लिखना तक नहीं आता। पत्रों के उस जमाने में जीवन में रस था जो अब खत्म हो गया है। चिट्ठियों के जमाने में रिश्ते धीरे-धीरे पकते थे। उनमें संवेदनाएं होती थीं। उस दौर में जीवन इतनी नकारात्मकता नहीं थी। आज की तरह हालात नहीं थे कि किसी के प्रति मन में आवेश आया और फोन उठाकर भड़ास निकाल दी। रिश्तों में नैचुरल फीलिंग थी। प्रेम विवाह वाले शादी के पहले चिट्ठी के सहारे ही एक-दूसरे से बात किया करते थे। पहले पत्नियां चिट्ठी के सहारे ही कई-कई महीने अपने पति उनसे दूर रह लेती थी। डाकियों को तो लोग देवदूत माना करते थे। खतों का एक दौर था जो बीत गया। अब बस यादें शेष हैं। उस दौर में पत्र लिखने की कला श्रेष्ठ मानी जाती थी। पत्र लिखना सिर्फ कुशल-क्षेम जानने का माध्यम नहीं था। बल्कि पत्रों के जरिए भाषा के सौंदर्य का विकास होता था। पत्र लिखते हुए हमारे अंदर संवेदनाओं का जन्म होता था। उस जमाने में पत्र लिखने को साहित्य के एक विधा के रूप में देखा जाता था। साहित्य में रुचि लगने वाले लोग पत्र के माध्यम से भी अपनी भावनाओं को शब्द देते थे। उस दौर में पत्र से भी ज्यादा मनी ऑर्डर लोकप्रिय था। चिट्ठियों का वो दौर यादगार तो है, लेकिन यह भी मानना होगा कि सूचना व तकनीक में हम काफी पिछड़े हुए थे। गांव में किसी के यहां यदि कोई हादसा हो जाए तो संबंधियों को सूचित करने में बहुत परेशानी होती थी लेकिन आज इंटरनेट ने क्रांति ला दी है। यदि कोई फेसबुक या वाट्सएप के माध्यम से भी अपनी भावना का इजहार करता है तो उसे भी लेखनी का माध्यम ही माना जाएगा। उस जमाने में भले ही एक-दूसरे का कुशल क्षेम जानने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था लेकिन उस जमाने की एक अलग रुमानियत थी। चिट्ठियों का दौर खत्म होने से लोगों के अंदर लिखने की प्रवृति खत्म हो गई है। आज की पीढ़ी लिखना नहीं जानती थी। कम से कम चिट्ठियों की वजह से लोगों के अंदर लिखने की तो आदत थी। फेसबुक, वाट्सएप के जमाने में हमारे अंदर का धैर्य खत्म हो रहा है। नई तकनीक के आने से जमाना जरूर तेज हो गया है। एक फोन घुमाया और जहां चाहा बात कर ली। वह दौर धीमा जरूर था लेकिन लोगों के अंदर संवेदनाएं थीं। जीवन में ठहराव था। फोन और इंटरनेट के सुलभ हो जाने से बातचीत की अधिकता हो गई है। इसे अति भी कहा जा सकता है। उस दौर के आनंद को शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता है। अगर आज की पीढ़ी व उनके जीवनी पर प्रकाश डाले तो साफ नजर आयेगा कि इंटरनेट और मोबाइल के जमाने ने संवेदनाएं खत्म कर दी है। हम जीवन में फास्ट जरूर हो गए हैं, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। चिट्ठियों के दौर में अपनों से बहुत कम बात हुआ करती थी। आज की तरह नहीं कि फेसबुक या फोन पर घंटों बात करते रहना लेकिन इसके बावजूद में रिश्तों में गर्महाट थी। उस जमाने में डाकिए की साइकिल की घंटी सुनते ही चेहरे खिल जातें थे। सभी लोग डाकिए से मिलने के लिए दौड़ पड़ते थे। कई बार तो सबसे पहले चिट्ठी पढ़ने के लिए छीना-झपटी भी हुआ करती थी। लंबे इंतजार के बाद चिट्ठी में लिखे एक-एक शब्द को पढ़कर जो अंदर महसूस होता था, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। प्रियजनों की सिर्फ चिट्ठी नहीं, उसमें उनका लिपटा प्यार भी आता था। दिल से जुड़ा वो दौर था। उस जमाने में लैंडलाइन फोन पर भी लंबे इंतजार के बाद मुश्किल से बात होती थी। आज का डाक टिकट, जो डाक विभाग द्वारा मुद्रित एवं जारी कागज का वह टुकड़ा है, जिसका उपयोग निश्चित राशि के भुगतान के पश्चात एक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये किया जाता है।

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