फिल्म ‘भेड़िया’ की पृष्ठभूमि अरुणाचल प्रदेश का जंगल है। जब भी उस जंगल को कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है तो एक ऐसा विषाणु आ जाता है कि लोगों को पता ही नहीं चलता है कि अब उस विषाणु से मुक्ति कैसे मिले। बात आसान सी है लेकिन बात कर समझाने में थोड़ी दिक्कत इसलिए भी लग सकती है क्योंकि फिल्म ‘भेड़िया’ की दिक्कत भी कुछ कुछ ऐसी ही है। फिल्म विचार के स्तर पर लाजवाब है लेकिन इसे परदे तक पहुंचाने के लिए इस बार निर्देशक अमर कौशिक के पास फिल्म ‘स्त्री’ में उनके जोड़ीदार रहे राज और डीके नहीं है। इस बार निरेन भट्ट की कल्पना शक्ति पर पूरा दारोमदार है और एक हॉरर यूनिवर्स की ये कहानी ‘रूही’ जैसे अंजाम को पहुंचती दिख रही है।
फिल्म ‘भेड़िया’ की कहानी दिल्ली के रहने वाले भास्कर की है। वह बग्गा के लिए काम करता है और बग्गा के कहने पर ही अपने चचेरे भाई जनार्दन के साथ सड़क बनाने अरुणाचल प्रदेश पहुंचता है। यहां इनकी मुलाकात जोमिन (पॉलिन कबाक) और पांडा (दीपक डोबरियाल) से होती है। दोनों भास्कर की मदद करते हैं। लेकिन जंगल के आदिवासी अपनी जमीन छोड़ने और पेड़ों को काटने के लिए तैयार नहीं हैं। नहीं नहीं यहां ‘कांतारा’ जैसा कुछ नहीं है। भास्कर अपनी कोशिशें जारी रखता है और एक दिन वापस लौटते समय उस पर हमला हो जाता है। मामला जानवरों की डॉक्टर अनिका (कृति सेनन) के पास पहुंचता है और यहां से कहानी का जो ट्विस्ट आता है, वही असल ‘भेड़िया’ है। फिल्म ‘भेड़िया’ में भास्कर पूनम की रात कुछ कुछ वैसे ही भेड़िया बन जाता है, जैसे महेश भट्ट की 1992 में रिलीज हुई फिल्म ‘जुनून’ का हीरो जानवर बनता है। इस एक फिल्म ने ‘आशिकी’ से स्टार बने राहुल रॉय के करियर पर ताला लगा दिया था। वैसा कुछ वरुण धवन के साथ तो नहीं होने वाला है लेकिन ‘भेड़िया’ की कहानी काफी कुछ ‘जुनून’ से मिलती जुलती है। सारा मामला यहां जंगल और जमीन को बचाने से जुड़ा हुआ है। भास्कर मानता है कि जीवन में सब कुछ पैसा ही है और पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है। उसके किरदार की ये सोच वरुण धवन को हीरो नहीं बनने देती। और, कहानी के तमाम ट्विस्ट ऐसे हैं कि फिर कहानी में न तो हिमेश रेशमिया के गाने गति ला पाते हैं और न ही गुलजार का गाना चड्ढी पहनाकर फूल ही खिला पाता है। फिल्म ‘भेड़िया’ की सबसे कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है। फिल्म इंटरवल से पहले बहुत धीमी है। अभिषेक बनर्जी और दीपक डोबरियाल अपनी कोशिशों से कहानी में थोड़ी जान फूंकने की कोशिश करते रहे। उनके डायलॉग पर हंसी भी आती है। इण्टरवल के बाद कहानी थोड़ी रफ्तार पकड़ती है और क्लाइमेक्स से पहले कहानी में एक नया ट्विस्ट आता हैं, और यहां फिल्म की हीरोइन कृति सेनन की कलाकारी से दर्शक हैरान रह जाते हैं। कृति सेनन ने अपने इस अनोखे किरदार के जरिये फिल्म ‘भेड़िया’ को बचाने की पूरी कोशिश की है। उनका रूप और लावण्य हिंदी सिनेमा में उनको नंबर वन की अभिनेत्री बनाने में मददगार है, बस उनको फिल्मों का चयन बेहतर करना चाहिए और कम से कम ऐसे गानों पर तो बिल्कुल कमर नहीं मटकानी चाहिए, जिनके बोलों के कोई मायने ही न होते हों। वरुण धवन के साथ दिक्कत वही है कि वह फिल्म कोई भी हो, कहानी कोई भी हो, किरदार कोई भी, वरुण धवन ही लगते हैं। अभिनय के लिए जो समर्पण उनमें चाहिए वह उनमें है नहीं और शायद इसीलिए वह मेहनतकश निर्देशकों की फिल्में छोड़कर ऐसी टीम के कप्तान बनना चाहते रहते हैं जहां उनकी हर बात आंख मूंदकर मानी जाए। अभिषेक बनर्जी ने उनसे बेहतर असर फिल्म में छोड़ा है। उनके होने से ही फिल्म की आत्मा हंसती है। तकनीकी टीम का काम देखें तो खुद निर्देशक अमर कौशिक इस बार थोड़े से कमजोर पड़ गए हैं। फिल्म का विषय तो उन्होंने बहुत अच्छा उठाया। पर्यावरण की बात भी सामने रखी लेकिन उन्हें कहानी पर थोड़ा और काम करने की जरूरत थी। निरेन भट्ट ने फिल्म को कुछ हल्के-फुल्के और मजाकिया पलों के साथ जीवंत करने की कोशिश तो की है लेकिन ये बकरा भी किस्तों में कटता है। सबसे कमजोर पहलू फिल्म का संगीत है।