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कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच सम्पन्न हुई प्रारंभिक परीक्षा

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जब अंगद ने पूछा, एक को तो मेरे पिता कांख में दबाए थे, तू कौन सा रावण है?

पत्नी मंदोदरी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हंसा और बोला- अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान है. स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं- साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता. तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया. हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है. तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा. हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया. तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है. हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली हैं. मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है. इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया. तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में अंधा लंकापति सभा में गया. यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं. इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता.

यहां (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूं कि बाली कुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!

यह अच्छी सलाह सबके मन में जंच गई. कृपा के निधान श्री रामजी ने अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालीपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ. तुमको बहुत समझाकर क्या कहूं! मैं जानता हूं, तुम परम चतुर हो. शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो. प्रभु की आज्ञा सिर चढ़कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगदजी उठे और बोले- हे भगवान् श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है. स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है. ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया. चरणों की वंदना करके और भगवान की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले. प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबांकुरे वीर बाली पुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं. लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहां खेल रहा था. बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान थे और फिर दोनों की युवावस्था थी.

उसने अंगद पर लात उठाई. अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया). राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहां-तहां भाग चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके. एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं. रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है. सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा. वे बिना पूछे ही अंगद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं. जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है. श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की सी ऐंड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे. तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया. सुनते ही रावण हंसकर बोला- बुला लाओ, देखें कहां का बंदर है. आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए. अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो! भुजाएं वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं. रोमावली मानो बहुत सी लताएं हैं. मुंह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कन्दराओं और खोहों के बराबर हैं.

अत्यंत बलवान बांके वीर बालीपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके. अंगद को देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए. यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ. जैसे मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए. रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? अंगद ने कहा- हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूं. मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूं. तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो. शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है. उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं. लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है. राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो. अब तुम मेरी हितभरी सलाह सुनो! उसके अनुसार चलने से प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे. दांतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो- और ‘हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए.’ इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो. आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे.

रावण ने कहा- अरे बंदर के बच्चे! संभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता. किस नाते से मित्रता मानता है? अंगद ने कहा- मेरा नाम अंगद है, मैं बाली का पुत्र हूं. उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया और बोला- हां, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बाली नाम का एक बंदर था. अरे अंगद! तू ही बाली का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बांस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुंह से तपस्वियों का दूत कहलाया! अब बाली की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहां है? तब अंगद ने हंसकर कहा- कुछ दिन बीतने पर स्वयं ही बाली के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना. श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे. हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है, जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों. सच है, मैं तो कुल का नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो. अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं! शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा करना चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? अंगद की कठोर वाणी सुनकर रावण आंखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला- अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूं कि मैं नीति और धर्म को जानता हूं.

अंगद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है. वह यह कि तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आंखों से देख ली. ऐसे धर्म के व्रत को धारण (पालन) करने वाले तुम डूबकर मर नहीं जाते! नाक-कान से रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जगजाहिर है. मैं भी बड़ा भाग्यवान् हूं, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया? रावण ने कहा- अरे जड़ जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएं तो देख. ये सब लोकपालों के विशाल बल रूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं. फिर तूने सुना ही होगा कि आकाश रूपी तालाब में मेरी भुजाओं रूपी कमलों पर बसकर शिवजी सहित कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था! अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा. तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुख से दुखी और उदास है. तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो, मेरा छोटा भाई विभीषण, सो वह भी बड़ा डरपोक है. मंत्री जाम्बवान बहुत बूढ़ा है. वह अब लड़ाई में क्या चढ़ उद्यत हो सकता है?

नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं वे लड़ना क्या जानें?. हां, एक वानर जरूर महान् बलवान है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी. यह वचन सुनते ही बाली पुत्र अंगद ने कहा- हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण जैसे जगद्विजई योद्धा का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया. ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा? हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है. वह बहुत चलता है, वीर नहीं है. उसको तो हमने केवल खबर लेने के लिए भेजा था. क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा! हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है. सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए. प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है. सिंह यदि मेंढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा? यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है.

वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया. वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी संड़सियों से निकाल रहा है. तब रावण हंसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है. बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहां-तहां नाचता है. नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है. यह उसके धर्म की निपुणता है. हे अंगद! तेरी जाति स्वामीभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुण ग्राहक (गुणों का आदर करने वाला) और परम सुजान (समझदार) हूं, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता. अंगद ने कहा- तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी. उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था. तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया. तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है. हनुमान ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है. रावण बोला- अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया. ऐसा वचन कहकर रावण हंसा. अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई! अरे नीच अभिमानी! बाली के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता. रावण! यह तो बता कि जगत में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुना- एक रावण तो बाली को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बांध रखा. बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे. बाली को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया.

फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड़ लिया. तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया. तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया. एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है- वह बहुत दिनों तक बाली की कांख में रहा था. इनमें से तुम कौन से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ. रावण ने कहा- अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान् रावण हूं, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है. जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिर रूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था. सिर रूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजी की पूजा की है. अरे मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है. दिग्गज दिशाओं के हाथी मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं. जिनके भयानक दांत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छाती में कभी नहीं फूटे, बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए.

जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूं. अरे झूठी बकवास करने वाले! क्या तूने मुझको कानों से कभी सुना? उस महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध रावण को मुझे तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया. रावण के ये वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! संभलकर (सोच-समझकर) बोल. जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था. जिनके फरसा रूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुरामजी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं? क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है? गरुड़जी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिंतामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्री रघुनाथजी की अखण्ड भक्ति क्या और लाभों जैसा ही लाभ है?

सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर जो लौट गए तू उनका कुछ भी न बिगाड़ सका, क्यों रे दुष्ट! वे हनुमानजी क्या वानर हैं? अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन. कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का बैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे. हे मूढ़! व्यर्थ गाल न मार (डींग न हांक). श्री रामजी से बैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर समूह श्री रामजी के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पड़ेंगे, और रीछ-वानर तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे. जब श्री रघुनाथजी युद्ध में कोप करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत से बाण छूटेंगे, और रीछ-वानर तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे. जब श्री रघुनाथजी युद्ध में कोप करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत से बाण छूटेंगे, वह बोला- अरे मूर्ख! कुंभकर्ण- ऐसा मेरा भाई है, इन्द्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने संपूर्ण जड़-चेतन जगत् को जीत लिया है! रे दुष्ट! वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बांध लिया, बस, यही उसकी प्रभुता है. समुद्र को तो अनेकों पक्षी भी लांघ जाते हैं. पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते. अरे मूर्ख बंदर! सुन- मेरा एक-एक भुजा रूपी समुद्र बल रूपी जल से पूर्ण है, जिसमें बहुत से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं. (बता,) कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों का पार पा जाएगा?

अरे दुष्ट! मैंने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राम में लड़ने वाला योद्धा है- तो फिर वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (सन्धि) करते उसे लाज नहीं आती? पहले कैलास का मथन करने वाली मेरी भुजाओं को देख. फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना. रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं. मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बांचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हंसा. उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है. (क्योंकि मैं समझता हूं कि) बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है. अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है! अंगद ने कहा- अरे रावण! तेरे समान लज्जावान जगत में कोई नहीं है. लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है. तू अपने मुंह से अपने गुण कभी नहीं कहता.

सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा. भुजाओं के उस बल को तूने हृदय में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बाली को जीता था. अरे मंद बुद्धि! सुन, अब बस कर. सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इंद्रजाल रचने वाले को वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है! अरे मंद बुद्धि! समझकर देख. पतंगे मोहवश आग में जल मरते हैं, गदहों के झुंड बोझ लादकर चलते हैं, पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते. अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूं. श्री रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है- कृपालु श्री रामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि सियार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता. अरे मूर्ख! प्रभु के उन वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं. नहीं तो तेरे मुंह तोड़कर मैं सीताजी को जबरदस्ती ले जाता. अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया, जब तू सूने में पराई स्त्री को हर लाया. तू राक्षसों का राजा और बड़ा अभिमानी है, परन्तु मैं तो श्री रघुनाथजी के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक का भी सेवक) हूं. यदि मैं श्री रामजी के अपमान से न डरूं तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूं कि तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गांव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊं. यदि ऐसा करूं, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है. मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है. वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा, नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान् विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुर्दे के समान हैं. अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता. अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला). अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दांतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला- अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुंह बड़ी बात कहता है. अरे मूर्ख बंदर! तू जिसके बल पर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है. उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया. उसे एक तो वह (उसका) दुख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है. जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं. अरे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर).

जब रावण ने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान् विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है. वानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोर से) अपनी दोनों भुजदंडों को पृथ्वी पर दे मारा. पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद गिर पड़े और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले. रावण गिरते-गिरते संभलकर उठा. उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े. कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी के पास फेंक दिए. मुकुटों को आते देखकर वानर भागे. (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बड़े धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं? प्रभु ने (उनसे) हंसकर कहा- मन में डरो नहीं. ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं. अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बाली पुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं. पवन पुत्र श्री हनुमानजी ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया. रीछ और वानर तमाशा देखने लगे. उनका प्रकाश सूर्य के समान था, वहां (सभा में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि- बंदर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो. अंगद यह सुनकर मुस्कुराने लगे.

रावण फिर बोला- इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहां कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो. पृथ्वी को बंदरों से रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते जी पकड़ लो. रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले- तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती! अरे स्त्री के चोर! अरे कुमार्ग पर चलने वाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मन्द बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है! इसका फल तू आगे वानर और भालुओं के चपेटे लगने पर पावेगा. राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़तीं? इसमें संदेह नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरन) सिरों के साथ रणभूमि में गिरेंगी. रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बाली को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस आंखें होने पर भी तू अंधा है. तेरे जन्म को धिक्कार है. श्री रामचंद्रजी के बाण समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं. (वे प्यासे ही रह जाएंगे) इस डर से, अरे कड़वी बकवास करने वाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूं. मैं तेरे दांत तोड़ने में समर्थ हूं. पर क्या करूं? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी. ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुंह तोड़ डालूं और (तेरी) लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूं.

तेरी लंका गूलर के फल के समान है. तुम सब कीड़े उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो. मैं बंदर हूं, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्री रामचंद्रजी ने वैसी आज्ञा नहीं दी. अंगद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कुराया (और बोला-) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहां से सीखा? बाली ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा. जान पड़ता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है. अंगद ने कहा- अरे बीस भुजा वाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूं. श्री रामचंद्रजी के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके (दृढ़ता के साथ) पैर रोप दिया. और कहा- अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री रामजी लौट जाएंगे, मैं सीताजी को हार गया. रावण ने कहा- हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो. इंद्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान योद्धा जहां-तहां से हर्षित होकर उठे. वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं. पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं. काकभुशुण्डिजी कहते हैं- वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं, परन्तु हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! अंगद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोह रूपी वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते. करोड़ों वीर योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे, वे बार-बार झपटते हैं, पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं. जैसे करोड़ों विघ्न आने पर भी संत का मन नीति को नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ता. यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया! अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए. तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा. जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बाली कुमार अंगद ने कहा- मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा! अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया. उसकी सारी श्री जाती रही. वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है. वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा. मानो सारी सम्पत्ति गंवाकर बैठा हो.

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